मेरी दिवाली की यादें
बचपन के घर की रौनक़
से ही सजी हैं।
🪔
माँ अपने हाथों से अनेक स्वादिष्ट व्यंजन बनातीं,
तो पिताजी दीयों और मोमबत्तियों की लड़ी सजाते।
भाई-बहन और दोस्त सुबह से लेकर शाम तक
नई-नई तरकीबों से पटाखे बजाते,
और जब सब बज जाते,
तो पिताजी पड़ोस की दुकान से और दिलाते।
हर दीपावली पर कई रिश्तेदार मिलने आते,
साथ में मिठाइयों का ढेर लाते।
चीनी के खिलौनों और लावे से सजी थालियाँ
मोहल्ले में घर-घर आती-जातीं।
शाम को लक्ष्मी पूजन में सारा गाँव
एक संगीत संध्या में लीन हो जाता।
दिवाली दिलों को रौनक़ कर देती
और सभी दूरियाँ मिटा देती।
🪔
अब तो बस बचपन की वो यादें रह गई हैं।
इतना कुछ हासिल करके भी,
जैसे-तैसे एकल परिवार के लिए
कुछ ख़ुशियाँ बटोर पाते हैं।
Facebook और WhatsApp के forwards में
महीनों के समारोह को चंद पलों में निपटाते हैं।
Fast forward आरती कर लक्ष्मी पूजा मानते हैं।
Society के car parking में
लोग एकत्रित तो हो जाते हैं,
पर अपने-अपने पटाखों और ज़ेवरों की नुमाइश कर के
अपने घर लौट जाते हैं।
और हल्दीराम या Swiggy से खाना मँगवा कर
TV या रम्मी में रम जाते हैं।
🪔
अबकि राम लौट भी आएँ तो
पूछने वाला कोई नहीं होगा।
पूजना तो दूर की बात है,
उन्हें लिफ़्ट से खुद ही ऊपर आना पड़ेगा।
वन वस्त्रों में चाभी ढूँढकर
फ़्लैट का ताला खोलना पड़ेगा।
और जब अंधेरे में switch ढूँढकर
Chinese लाइट्स जलाएँगे तो शायद
Alexa या Google “हैपी दिवाली” याद दिला दे।
🪔
लक्ष्मी जी को तो शायद Uber करना पड़े,
उनके वाहन उल्लू तो अन्य पक्षियों के साथ
दिवाली के इस दिखावे, धमाके और चकाचौंध में
भूखे और बेघर, दूर कहीं खो जाते हैं।
लक्ष्मी जी ने भी Paytm से समझौता कर लिया है शायद,
दिलों के दरवाज़े बंद जो पड़े हैं।
🪔
बचपन से बड़कपन तक आते-आते
मेरा आचरण भी शहरी हो गया,
पर अंतर्मन तो अभी भी
उस देहाती दिवाली के लिए तरसता है।
जवानी के जोश में दूरियाँ नया दर्जा देती हैं,
पर दिल तो बस घर लौटना चाहता है।
अब शायद बचपन की वो दीपावली मुमकिन नहीं है,
न ही उसे खोजने में कोई सुकून मिलेगा।
🪔
हाँ, यदि हम परम भक्त हनुमान की तरह
श्रीराम और सीताजी को दिल में उतारें,
तो दिवाली का मूल तत्व आज भी उजागर हो सकता है।
दिवाली दिलों को जोड़ने का त्योहार है,
वनवास से राज्य में लौटने का उत्सव है,
माता-पिता और पूर्वजों को पूजने का संस्कार है,
और अपने अर्जित पुण्य को दान करने का
पावन पर्व है — दिवाली।
🪔
तो हम जहाँ भी हों,
जैसे भी हों,
जब भी हों —
वो हर पल जब हम
दिलों को जोड़ने,
वनवास से लौटने,
बड़ों के नमन,
और सबके मंगल
का संकल्प करते हैं,
तो दिवाली रौनक़ हो जाती है।
अन्तर्मन के प्रकाश
और दिलों के मधुर संवाद से
दिवाली रौशन हो जाती है।
🪔
— मनीष श्रीवास्तव
२० अक्टूबर २०२५


